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एकं॑ च॒ यो विं॑श॒तिं च॑ श्रव॒स्या वै॑क॒र्णयो॒र्जना॒न्राजा॒ न्यस्तः॑। द॒स्मो न सद्म॒न्नि शि॑शाति ब॒र्हिः शूरः॒ सर्ग॑मकृणो॒दिन्द्र॑ एषाम् ॥११॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ekaṁ ca yo viṁśatiṁ ca śravasyā vaikarṇayor janān rājā ny astaḥ | dasmo na sadman ni śiśāti barhiḥ śūraḥ sargam akṛṇod indra eṣām ||

पद पाठ

एक॑म्। च॒। यः। विं॒श॒तिम्। च॒। श्र॒व॒स्या। वै॒क॒र्णयोः॑। जना॑न्। राजा॑। नि। अस्तः॑। द॒स्मः। न। सद्म॑न्। नि। शि॒शा॒ति॒। ब॒र्हिः। शूरः॑। सर्ग॑म्। अ॒कृ॒णो॒त्। इन्द्रः॑। ए॒षा॒म् ॥११॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:18» मन्त्र:11 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:26» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजा क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यः) जो (दस्मः) दुःख के विनाश करनेवाले के (न) समान (वैकर्णयोः) विविध प्रकार के कानों में उत्पन्न हुए व्यवहारों का (नि, अस्तः) निरन्तर प्रक्षेपण करने अर्थात् औरों के कानों में डालनेवाला (राजा) विराजमान (जनान्) मनुष्यों को (सद्मन्) जिसमें बैठते हैं उस घर में (नि, शिशाति) निरन्तर तीक्ष्ण करता है और (विंशतिम्, च, एकम्, च) बीस और एक भी अर्थात् इक्कीस (श्रवस्या) अन्न में उत्तम गुण देनेवालों को (अकृणोत्) सिद्ध करता है वह (एषाम्) इन वीर मनुष्यों के बीच (इन्द्रः) सूर्य (बर्हिः) अच्छे प्रकार बड़े हुए (सर्गम्) जल को जैसे वैसे (शूरः) निर्भय शत्रुओं को जीतता है ॥११॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो राजा मनुष्यों के पुत्र के समान पालता, अहिंसक के समान सब को आनन्दित कराता और सूर्य के समान न्यायविद्या और बलों को प्रकाशित कर शत्रुओं को जीतता है, वही सब सुखों को प्राप्त होता है ॥११॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स राजा किं कुर्य्यादित्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! यो दस्मो न वैकर्णयोर्न्यस्तो राजा जनान् सद्मन् नि शिशाति विंशतिं चैकं च श्रवस्याकृणोत् स एषामिन्द्रोब र्हिः सर्गमिव शूरश्शत्रून् विजयते ॥११॥

पदार्थान्वयभाषाः - (एकम्) (च) (यः) (विंशतिम्) एतत्संख्याताम् (च) (श्रवस्या) श्रवस्यन्ने साधूनि (वैकर्णयोः) विविधेषु कर्णेषु श्रोत्रेषु भवयोर्व्यवहारयोः (जनान्) मनुष्यान् (राजा) राजमानः (नि) (अस्तः) योऽस्यति सः (दस्मः) दुःखोपक्षयिता (न) इव (सद्मन्) सीदन्ति यस्मिन् तस्मिन् गृहे (नि) नितराम् (शिशाति) तीक्ष्णीकरोति (बर्हिः) प्रवृद्धम् (शूरः) निर्भयः (सर्गम्) उदकम्। सर्ग इत्युदकनाम। (निघं०१.१२) (अकृणोत्) करोति (इन्द्रः) सूर्यः (एषाम्) वीराणां मनुष्याणां मध्ये ॥११॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यो राजा मनुष्यान् पुत्रवत्पालयत्यहिंसक इव सर्वानानन्दयते सूर्यवत् न्यायविद्याबलानि प्रकाश्य शत्रून् विजयते स एव सर्वं सुखमाप्नोति ॥११॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जो राजा माणसांचे पुत्राप्रमाणे पालन करतो, अहिंसकाप्रमाणे सर्वांना आनंदित करतो व सूर्याप्रमाणे न्याय, विद्या व बल प्रकट करून शत्रूंना जिंकतो तोच सर्व सुख प्राप्त करतो. ॥ ११ ॥